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Ramayan

Ramayan

श्लोक : * वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥ भावार्थ:-अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ 1)I worship Saraswati(the goddess of speech) and Vinayaka (Lord Ganesh),the originators of sound represented by the alphabet, of the multitude of objects denoted by those sounds, of poetic sentiments as well as of verses written anywhere, and the generators of welfare. * भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥ भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥ 2)I greet Goddess Parvati and Her consort, Bhagavan shankar, embodiments of reverence and faith respectively, without which even the adept cannot perceive God enshrined in their very heart. * वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्

What Vivekananda would have told on sabarimala verdict

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सिंघासन- Lion throne

सिंघासन– Lion throne. Why do we call it सिंह आसन। Because of the fact, that whoever sits on it, has to control the lion within.पशु प्रवृत्ति, the inhabitance of  domination. In hindu mythologies , all gods have a vehicle or आसन in the form of animals.we treat power as शक्ति, the natural form and name  of goddess durga, shiv -shakti. We have been communicating the stories since centuries which are written in the form of mythological literature. Durga is seating on lion, the king of jungle, undisputably the most dominating creature after human. Why shakti is seated on सिंह।Because she has to control the power within otherwise she would become Kali and she will destroy the universe in seconds. सिंह आसन is a reminder that with great power comes even greater responsibilities. Ravan is also a king. He kidnaps sita  despite his vedic gyan. In अहंकार, he tries to burn hanumanaji's tail. In result, golden lanka was burnt in ashes. Dashrath is also seating on lion throne. He takes the

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* पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥ बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥ भावार्थ:- पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी सुरानीक अर्थात्‌ देवताओं की सेना हितकारी है)॥5॥ * बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥  भावार्थ:- जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥6॥ 38.39.Again, I bow to him as the celebrated king Parthu (who prayed for ten thousand ears in order to be able to hear the glories of the Lord to his hearts content) in as much as he hears of other's faults with the thousand ears as it were. Once more do I supplicate to him as Indra (the lord of celestials) in so far as wine appears charming and beneficial to him (even as the arm

पैसा दुनिया की सबसे बड़ी "चीज" है।

पैसा दुनिया की सबसे बड़ी चीज है। मैंने पैसा नहीं कमाया लेकिन इज्जत बहुत बहुत है मेरा समाज में।पैसे से आप इज्जत नहीं खरीद सकते। रुपया से माँ बाप खरीद सकते हो क्या।पैसे से खुशी नहीं आती, वगैरह वगैरह.... आप सभी लोगों ने चौक चौराहों पर ,घर परिवार में इस तरह की बाते सुनी होगी।आपको शायद लगता होगा की यह सच है। लेकिन ऐसा वास्तविकता में नहीं है। यहाँ पर हमलोग यह भूल जाते हैं कि पैसा एक "चीज़" है, यानि कि वस्तू ।वस्तू के बदले में हम वस्तू ही खरीद सकते हैं, विचारों को नहीं। इज्जत, खुसी ,माँ पिता, प्रेम,भक्ति,भगवान, राम,कृष्णा, शिव, अल्लाह , ये सारे विचार हैं। क्योंकि बेईमान आदमी को पैसे की परवाह है, इज्जत की नहीं।पैसे के पीछे भागने वालों को सुख के संसाधन जुटाने की भूख है, जिस चक्कर में वो खुसी का एहसास भूल जाते हैं और ना ही उन्हे खुशी की चाहत रहती है। आज के जमाने में ऐसी कलयुगी mom dad हैं, जिन्हें अपने बच्चों की हत्या करने, यहाँ तक की इज्जत लूटने में भी लज्जा नहीं आती।मैं उन लोगों के लिए माँ पिता जैसे पवित्र शब्दों का  इस्तेमाल भी नहीं करना चाहता। यह तो एक प्यारा विचार है।जन्म देने

Ramayan12

*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥ उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥ भावार्थ:- जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥3॥ * पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥ बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥ भावार्थ:- जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं॥4॥ 36.37). In splendour they  emulate the god of fire(Agni) and in anger they vie with the god of death(Yamraj), who rides a buffalo. They are rich in crime and vice as Kubera, the god of riches, is in gold. Like the rise  of a comet their advancement augurs ill for ot

Ramayan11

खल वंदना चौपाई : * बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥ पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥ भावार्थ:- अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है॥1॥ * हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥ जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥ भावार्थ:- जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात्‌ जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥ 34. 35).Again,

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* सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥ भावार्थ:- दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥ * बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥ सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥ भावार्थ:- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥ 30.31) Through contact with the noble person even the wicked get reformed, just as

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दोहा : * बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ। अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥ भावार्थ:- मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥ * संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख) भावार्थ:- संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥ 32.33). I bow to the saints, who are even-minded towards all and have no friend or foe, just as a flower of good quality placed in the palm of one's hands communicates its fragrance alike to both the hands (the one which plucked it and that which held and preserved it). Realizing thus the noble dispo

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* बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥ सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥ भावार्थ:- सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥ 29. Wisdom dawns not without association with saints and you can't have such an association  without the grace of God sri Råma. Contact with noble souls is the root of joy and blessings; it constitutes the very fruit and fulfilment of all endeavours, whereas all other practices are blossoms as it were. *My understanding: Satsang(communication of good thoughts between people) is first step for self called atheists towards adhyatm(spirituality). जय श्री राम।

Ramayan7

चौपाई : * मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥ सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥ भावार्थ:- इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥ * बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥ जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥ भावार्थ:- वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥ * मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥ सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥ भावार्थ:- उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥ 26.27.28) The result of dipping into the sacred waters of this kin

Ramayan6

दोहा : * सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥ भावार्थ:- जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥ 25.Men who having heard the glory of this moving Prayåga in the form of the assemblage of holy men, appreciate it with an enraptured mind and then take a plunge into it with extreme devotion obtain the four rewards* of human existence during their very lifetime. *The four rewards of human existence are: (1) Dharma (2) Artha   (3) Kåma (4) Moksha  *My understanding: #Dharma (धर्म) is that which makes you human, which enables you to take decision that makes you human._ @Dr. Dev dutt patnaik Artha and kaam are result of Karma(कर्म). Karma is the ecosystem of action and reaction. #Artha (अर्थ) which gives pleasure to senses, like food, water, air. Kaam (काम) which gives

Ramayan5

* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥ राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥ भावार्थ:- संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥ * बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥ हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥ भावार्थ:- विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥ * बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥ सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥ भावार्थ:- (उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने

स्वार्थ please be selfish

स्वार्थी बनो और देखो! मेरा साथी मेरी ईर्ष्या करता है और मुझे बहुत महत्वपूर्ण बनाता है जितनी कि मैं नहीं हूं।_रजनीश स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है। और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिल

Ramayan4

* साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥ जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥ भावार्थ:- संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥ 20.The conduct of holy men is noble as the career of the cotton plant, the fruit whereof is tasteless, white and fibrous (even as the doings of saints yield results wh

Kalam's take on development

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Feel your power

Nothing is insignificant, nothing is smaller than anything else. The part represents the whole just as the seed contains the whole.” _ OSHO

Ramayan3

* श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥ दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥ भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥  * उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥ सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥ भावार्थ:- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥ 15.16) The splendour of gems in the form of nails on the feet of the blessed Guru unfolds divine vision in the heart by its very thought. The lustre disperses the shades of infatuation, highly blessed is he in whose bosom it shines. With its very appearance the bright eyes of the kmind get opened; th

Ramayan2

* कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन। जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥ भावार्थ:- जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥ 11)May the crusher of Cupid, Bhagvan shiv, whose form resembles in colour the jasmine flower and the moon, who is the consort of Goddess Parvati and an abode of compassion and who is fond of the afflicted, be gracious. * बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥ भावार्थ:- मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥ 12)I bow to the lotus feet of my Guru, who is an ocean of mercy and is no other than shree Hari Himself in human form, and whose words are sunbeams as it were for dispersing the mass of darkness in the form of gross ignorance.

Ramayan1

* यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः। यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्‌॥6॥ भावार्थ:-जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥6॥ 6)I invoke Lord Hari, known by the name of Sri Rama, who is superior to and lies beyond all causes, whose Maya(illusive power) holds control over the entire universe including gods from Brahma(the Creator) downwards and demons, whose presence lends positive reality to the world of appearances — —and whose feet are the only barge for those who are eager to cross the ocean of mundane existence. * नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽप

Romance

If you wanna be passionately romantic;become "आध्यात्मिक ."  _Rajiv Tiwary

Dharma

That you practice is your dharma

धर्म बड़ा अथवा राष्ट्र

राष्ट्र का एक धर्म होता है ; धर्म अंतरराष्ट्रीय होता है।

Money is the biggest thing

Money can't buy happiness; But money can buy things to make you happy.                                       _Rajiv Tiwary

Aim of Life : Life itself

Aim of life : Life itself                      _ Rajiv Tiwary. Life is not an art or a science; it is a process.so just live it and enjoy.

Aim of life: Life itself

दुनिया का सबसे आसान शब्द "चिंता"| दुनिया का सबसे कठिन कार्य "चिन्तन"। चिंता मत कीजिए अपितु चिंतन कीजिये।जीवन में आनन्द आएगा, आनन्द से परमानंद की तृप्ति होगी और परमात्मा हीं परमानन्द है।ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है आनन्द।
“धर्म बड़ा या देश”? It’s just like asking “अक्ल बड़ी कि भैंस”.The silly thing is that we knew the right answer when we were child. Apply your and only your mind into it.You will get the answer.Why do we say that mind is bigger than the Buffalo in spite of it's large size as seen by naked eyes. Because of the fact that human mind has चेतना (consciousness, imagination) which has no boundary. It's like comparing ocean with a well. Likewise dharma is अनन्त (infinite), it has infinite boundaries, it is beyond imagination. when thing and thought combine to become one entity dharma takes birth. so when you will realize yourself then and then only you will understand the true meaning of Dharma.