Ramayan2
* कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
भावार्थ:-जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥
11)May the crusher of Cupid, Bhagvan shiv, whose form resembles in colour the jasmine flower and the moon, who is the consort of Goddess Parvati and an abode of compassion and who is fond of the afflicted, be gracious.
* बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
12)I bow to the lotus feet of my Guru, who is an ocean of mercy and is no other than shree Hari Himself in human form, and whose words are sunbeams as it were for dispersing the mass of darkness in the form of gross ignorance.
चौपाई :
* बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
भावार्थ:-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
* सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
भावार्थ:-वह रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
जय श्री राम।
*My understanding: once again the poet tulsidas has used the word प्रियतम(consort) for mata parvati instead of wife. Clearly the focus is on love. Love is a step towards divinity. So before loving others, first love yourself. God resides in your soul. First reach towards yourself then preach(reaching to others).
जय श्री राम।
Better to read in hindi edition.
ReplyDeleteजय श्री राम।